क्या प्लेन क्रैश की कहानी गढ़ी गई, 1945 प्लेन क्रैश: नेताजी के मौत का सबसे बड़ा झूठ? | Matrubhoomi

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मौत एक शाश्वत सत्य है। लेकिन कुछ मौतें ऐसी होती हैं जिसपर रहस्य का कफ़न लिपटा होता है। नेताजी की मौत का रहस्य, भारतीय राजनीति के सबसे लंबे समय तक चलने वाला विवाद। दशकों से भारतवासी जानना चाहते हैं कि आखिर सुभाष चंद्र बोस को क्या हुआ? क्या नेताजी एक विमान दुर्घटना में मारे गए थे या रूस में उनका अंत हुआ। या फिर 1985 तक वह , गुमनामी बाबा बनकर उत्तर प्रदेश में रहे। 16 अगस्त 1945 द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने की कगार पर था। जापान ने हथियार डाल कर सरेंडर कर दिया था और जर्मनी में हिटलर ने खुदखुशी करके अपनी जान ले ली थी। जर्मनी और जापान दोनों ही देश बुरी तरीके से इस वॉर को हार चुके थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस जो 1943 से ही आजाद हिंद फौज को लीड करते वक्त जापान से मदद ले रहे थे। अब वो नए तरीकों की तलाश में थे कि कैसे आजादी की लड़ाई को बरकरार रखा जा सके। हालांकि ये प्लान लिखित रूप से स्पष्ट नहीं थे। लेकिन उनके साथी जानते थे कि नेताजी अपना बेस अब सोवियत यूनियन में शिफ्ट करना चाहते हैं। उनका प्लान था कि वो पहले टोक्यो जाकर जापानी सरकार को धन्यवाद करेंगे। फिर वहां से सोवियत की ओर रवाना हो जाएंगे। इसके पीछे साधारण सा कारण था। सोवियत यूनियन अलाइट फोर्सेज का हिस्सा थी, यानी वो देश जिन्होंने इस युद्ध को जीता। लेकिन इसके बावजूद सोवियत अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों से काफी अलग था। 
अपनी कम्युनिस्ट विचारधारा के चलते नेताजी को उम्मीद थी कि वो ब्रिटिशर्स के खिलाफ भारत की मदद करेंगे। शाहनवाज कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक नेताजी इसी दौरान तीसरी और आखिरी बार नेताजी जापानी सरकार से कुछ जरुरी मुद्दों पर बात करने टोक्यो गये। लेकिन समस्या ये थी जापान अभी जंग हारा था। दो न्यूक्लियर धमाके हिरोशिमा और नागाशाकी ने तबाही का मंजर देखा। इसलिए जापानियों के पास नेताजी को टोक्यो ले जाने के लिए ज्यादा ऑप्शन नहीं था। लेकिन उन्होंने एक रास्ता निकाला। सीएसडीआईसी के सामने दिये बयान में आनंद मोहन सहाय ने बताया कि सन् 1944 के अन्त या सन 1945 की शुरुआत में जब वह जापानी विदेश मंत्री शिगेमित्सु उनके मातहत गायमुशो में भारतीय प्रभाग के मुखिया से मिले तो उन्हें बताया गया कि टोक्यो में हुये उनके पिछले और आखिरी दौरे में बोस ने रुसी राजनयिक से मिलने की इच्छा जताई तो थी, पर जपानी सहयोग न होने के कारण वह ऐसा नहीं कर सके थे। बाद में नेताजी ने खुद सहाय को बताया कि उन्होंने जापानी सैन्य मुखियाओं से यह कहा था कि वह मन्चूरिया के रास्ते उनके रुस पहुंचने का इन्तजाम करवायें। जापानी सेना का यह सोचना था कि सुभाष चन्द्र बोस को किसी ऐसी जगह जाना चाहिये, जहां उन्हें अधिक स्वतंत्रता प्राप्त हो। जैसे सोवियत मन्चूरिया सीमा, टोक्यो मुख्यालय ने दायरन के रास्ते रुस जाने के बोस की योजना को स्वीकृति दी और जनरल शिदई से उनके साथ जाने को कहा। 

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17 अगस्त की दोपहर सुनसान साइगोन हवाईपट्टी पर दो हवाई जहाज उतरे। पहले में थे-बोस, अय्यर, प्रीतम, रहमान और एक अन्य जापानी अफसर। फिर आये हाचिया, इसोदा, कर्नल गुलज़ारा सिंह, देबनाथ दास, मेजर आबिद हसन। दोपहर में इसोदा और टाडा ने नेताजी में मुलाकात की। यहां पहुंचने पर इन्हें बताया जाता है कि इस हेवी बॉम्बर हवाई जहाज में तो केवल दो लोगों के बैठने की जगह खाली है। नेताजी अपने आजाद हिंद फौज के साथियों के साथ इस सफर में नहीं जा सकते थे। उन्होंने हबीबुर रहमान के साथ अपनी यात्रा को आगे बढ़ाया। 17 अगस्त को शाम केपांच बजे ये प्लेन साइगोन से टेकऑफ करता है औऱ करीब 12-13 लोग इसमें बैठे थे। नेताजी और हबीबुर रहमान के अलावा बाकी सभी लोग जापानी मिलिट्री के थे। शाम 7 बजे प्लेन तूरेन में उतरा जो कि आज दक्षिणी वियतनाम में दा नांग के नाम से जाना जाता है। सभी पैसेंजर होटल में रुकते हैं। अगली सुबह पांच बजे प्लेन उड़ता है। उसके बाद भारत के इतिहास की सबसे विवादास्पद हवाई दुर्घटना घटित हुई। 

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दोपहर 2:30 बजे विमान अपनी नाक धीरे-धीरे उठाते हुये उड़ान भरने अचानक भडाम की एक भयानक आवाज हयी। दिल दहलाने वाली यह आवाज पहले कैप्टन नाकामुरा ने सुनी। वह मत्तसूयामा हवाई अड्डे पर मेन्टेनेंस अफसर के पर कार्यरत थे। उन्हें दूर से जहाज से कुछ गिरता दिखाई पड़ा। यह जहाज के और पोर्ट इंजन थे। रहमान ने भी यह भयानक आवाज़ सुनी। पायलटों ने विमान को काबू में करने की भरसक कोशिश की, पर नाकाम जॉयस्टिक लगातार कांप रही थी और डैशबोर्ड की सईयां आपे से बाहर थीं। 3 सेक में विमान 300 कि०मी० प्रति घण्टे की रफ्तार से 300 फीट नीचे आ गिरा। नेताजी को सिर में भारी चोट आयी थी। पर वह खड़े हो चुके थे और आग से दूर होकर मेरी दिशा में बढ़ रहे थे, ताकि पीछे वाले हिस्से से विमान के बाहर निकल सकें। पर यह नामुमकिन था। पर आगे बढ़ने पर दरवाज़ा एक आग के गोले सा दिखा। नेताजी आग की लपटों में से कूदते हुए आगे बढ़े। जब विमान क्रैश हुआ नेताजी की खाकी पर पेट्रोल गिर गया था। जैसे ही वो आगे बढ़े उनकी खारी में आग लग गई। कुछ ही मिनटों में रहमान और नेताजी को एक लॉरी में रखकर नानमोन मिलिट्री अस्पताल ले जाया गया। लेकिन नेताजी को बचाया नहीं जा सका। 
1960 के दशक में एक नई कहानी ने जन्म लिया इस बार बोस को भारत के एक सुदूर कोने में एक संन्यासी के वेश में देखे जाने का दावा किया गया। आज से लगभग 15 20 वर्ष पहले एक बार फिर से इस मुद्दे पर नई सांसो की गई जब एक कोर्ट के निर्णय की वजह से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रह चुके मुखर्जी की जांच ने पासा पलट दिया था अपनी रिपोर्ट में उन्होंने सरकार को उनकी जांच में पूरा सहयोग न करने के लिए जबरदस्त फटकार लगाई उन्होंने यह भी लिखा कि ताइवान में बोस की मृत्यु की कहानी अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकने की एक जापानी चल थी ताकि वह बोस के रूस जाने की बात छिपा सके। जब गुमनामी बाबा के निधन के बाद उनकी नेताजी होने की बातें फैलने लगे तो नेता जी की भतीजी ललिता बोस भी कोलकाता से फैजाबाद आई थी और वह भी इन सामानों को देख कर फफक कर रो पड़ी थी यह कहते हुए कि यह सब कुछ मेरे चाचा का ही है। सरयू नदी के तट पर गुमनामी बाबा की समाधि है जिस पर जन्म की तारीख लिखी है 23 जनवरी संयोग है कि यही तारीख नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जन्म तिथि है जबकि मृत्यु की तारीख के सामने तीन सवालिया निशान लगे। 
मौत क्यों आज भी रहस्य? 
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवित होने की बात को इससे भी बल मिला कि ब्रिटिश और अमेरिकी खुफिया विभाग लगातार उनकी तलाश करते रहे। हरू की मृत्यु के बाद भी एक तस्वीर वायरल हुई थी इसमें साधु के वेश में एक आदमी उनके दर्शन कर रहा है उन्होंने उस आदमी के गोलाकार चश्मे की वजह से यह कहा गया था कि वह कोई और नहीं बल्कि सुभाष चंद्र बोस ही थे। नेताजी की तथाकथित मृत्यु के 7 दिन बाद एक अमेरिकी पत्रकार अल्फ्रेड में नहीं आ दावा किया था कि नेताजी जिंदा है और 4 दिन पहले उनको साइगोन नामक जगह में देखा गया। नेताजी के जीवित होने को महात्मा गांधी ने भी हवा दी थी उन्होंने एक भाषण में कहा था कि कोई मुझे अस्थियां दिखा दे तब भी मैं इस बात को नहीं मानूंगा कि सुभाष जीवित नहीं बचे। इवान सरकार ने अपना रिकॉर्ड देखकर खुलासा किया था कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में कोई विमान हादसा हुआ ही नहीं था। बहरहाल, आज बरसों बीत चुके हैं। नेताजी के अपने राज्य बंगाल में भी शायद ही उनका राजनैतिक साथ देने वाला कोई बाकी हो। पर उनकी मृत्यु की रहस्य गाथा आज भी हमें उकसाती है। जाहिर सी बात है, अफवाहों और निराधार चिंतन से कुछ ज्यादा है इस मसले में तभी तो हम लोग इसे भूले नहीं। 



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