Lifestyle News: पेरेंट्स कई बार बच्चे की आदतों से परेशान होकर उसे डांट-डपटकर या चिल्लाकर (scolding or shouting) समझाने की कोशिश करते हैं। यह बच्चे को समझाने का पिटाई से बेहतर तरीका माना जाता है।लेकिन असल में चिल्लाना कम्यूनिकेशन (communication) का सही तरीका नहीं है।
मनोवैज्ञानिक (Psychologists) मानते हैं कि चिल्लाने वाले व्यक्ति खुद को दूसरों से बेहतर और ताकतवर समझते हैं। कई बार दूसरों को अनुशासन (discipline) में लाने के लिए या दूसरों के सामने खुद को कमजोर या मजबूत पाकर भी लोग चिल्लाने लगते हैं।चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट (Child psychologist) डॉ. रेखा मल्होत्रा (Dr. Rekha Malhotra) कहती हैं कि बार-बार चिल्लाने की आदत से दूसरों से तो संबंध खराब होते ही हैं, साथ ही चिल्लाने वाले व्यक्ति पर भी उसका बुरा असर होता है। अगर चिल्लाना पैटर्न या आदत बन जाए तो यह आसपास के कई लोगों की मानसिक और शारीरिक सेहत (mental and physical health) के लिए खराब साबित होता है।’द जर्नल ऑफ चाइल्ड डेवलपमेंट’ (The Journal of Child Development) की एक रिपोर्ट के अनुसार, बच्चों पर चिल्लाना उन पर पीटने जैसा ही असर छोड़ता है। चिल्लाने से बच्चों में बेचैनी, तनाव और डिप्रेशन के लक्षण बढ़ते हैं।
मनोविज्ञानी बर्नार्ड गोल्डन (psychologist Bernard Golden) के मुताबिक, चिल्लाने और जोर की आवाज सुनने से शरीर का वॉर्निंग सिस्टम (warning system) सक्रिय हो जाता है। ऐसे में हम तुरंत ही फाइट या फ्रीज की स्थिति में आ जाते हैं।इसका असर दिमाग के उन हिस्सों पर पड़ता है जो कार्टिसोल और एड्रेनेलिन हॉर्मोन (adrenaline hormones) को बढ़ाता है और शरीर खतरे से लड़ने के लिए सक्रिय हो जाता है।