रचनाकार- ललिता मेश्राम विधा- बाल साहित्य |
काश यह ठंडी ऐसे ही रहती,
न स्कूल जाती न होमवर्क करती।
दिन भर रजाई ओढ़कर सोती,
मम्मी बनातीं रोज खीर-पूरी।
मैं आंगन से कभी धूप पर जाती,
कभी धूप से फिर अंदर आती।
मम्मी से बनवाती गाजर का हलवा, मैं खूब खाती।
आते इस ठंडी में रोज़, नाना-नानी दादा-दादी।
सिगड़ी जलाकर आग सेंकते, लोरिया-कहानियां रोज सुनाते।
पापा कहते इस ठंडी में,
स्कूल मत जाओ बच्चों।
इस ठंड से बचो बच्चों,
कांश यह ठंडी ऐसे ही रह जाती।
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