आपातकाल:लोकतन्त्र की हत्या का वीभत्स दौर
~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
आपातकाल एक ऐसी त्रासद और वीभत्स दास्तां जब देश को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बंधक बना लिया। 21 महीने का एक ऐसा क्रूर और बर्बर आतंक का कालखंड जब पीएम इंदिरा गांधी ने संविधान को अपने कारागार में क़ैद कर दिया। भारत के महान लोकतन्त्र की शनै:शनै: हत्या की जाने लगी। ये वो दौर था जब – इंदिरा गांधी सरकार के विरोध में उठने वाली किसी आवाज़ को बंद कर देने की घोषणा हो चुकी थी। संविधान, कानून, अधिकार सबकुछ इंदिरा गांधी और उनके पालित सियासी गुंडों के हाथों की कठपुतली हो गए थे। जब चाहे जिसे चाहे उसे ‘मीसा’ के तहत जेल में डालने और उस पर नृशंस अत्याचार करने की खुली छूट थी। पूरा देश गांधी खानदान के लिए चारागाह बन चुका था। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह था इलाहाबाद हाईकोर्ट का 12 जून 1975 का वो आदेश जिसके अंतर्गत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कि निर्वाचन रद्द कर दिया गया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका स्वीकार की।इसके बाद मामले की सुनवाई करते हुए इंदिरा का चुनाव रद्द कर दिया और उन्हें 6 साल के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था। वहीं लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में चल रहा ‘संपूर्ण क्रांति’ का आंदोलन भी अपने उफान पर था। जेपी के नेतृत्व में इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ चल रहा आंदोलन दिनों दिन आक्रामक होने लगा। एक ओर इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश और दूसरी ओर जेपी की संपूर्ण क्रांति से इंदिरा गांधी घबरा गईं। उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था।
ऐसे में इसके विरुद्ध कांग्रेस ने 20 जून, 1975 के दिन एक विशाल रैली का आयोजन किया। इस रैली में कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने कहा था— “इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय” साथ ही इसी जनसभा में अपने भाषण के दौरान इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि वे प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र नहीं देंगी।
अर्थात् प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सुस्पष्ट कर दिया था कि वो संविधान और कानून का पालन नहीं करेंगी। उनके लिए न्यायालय का आदेश कोई मायने नहीं रखता। अब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उस पटकथा को पर्दे में उतारने में लग गईं थी जो ‘आपातकाल की त्रासदी’ बनकर उभरा।
इधर 25 जून,1975 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान पर विशाल जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा था कि— “सब विरोधी पक्षों को देश के हित के लिए एकजुट हो जाना चाहिए अन्यथा यहाँ तानाशाही स्थापित होगी और जनता दुखी हो जायेगी।” उसी दौरान लोक संघर्ष समिति के सचिव नानाजी देशमुख ने वहीं पर उत्साह के साथ घोषणा कर दी— “इसके बाद इंदिरा जी के त्यागपत्र की मांग लेकर गाँव-गाँव में सभाएं की जाएंगी और राष्ट्रपति के निवास स्थान के सामने 29 जून से प्रतिदिन सत्याग्रह होगा।” उसी संध्या को जब रामलीला मैदान की विशाल जनसभा से हजारों लोग लौट रहे थे, तब प्रत्येक धूलिकण से मानो यही मांग उठ रही थी कि- “प्रधानमंत्री त्यागपत्र दें और वास्तविक गणतंत्र की परम्परा का पालन करें।” (पी.जी. सहस्त्रबुद्धे, मानिकचंद्र वाजपेयी, आपातकालीन संघर्ष-गाथा (1975-1977), पृष्ठ 1)
लेकिन इसके बाद सत्याग्रह का कोई अवसर ही नहीं आ पाया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की अर्द्ध रात्रि को ही आपातकाल घोषित कर दिया।इसी के साथ शुरू हो गया देश को खुली जेल में बदलने का वीभत्स खेल।देश की न्यायपालिका के हाथ-पांव बांध दिए गए। समूचे विपक्ष और जनता को सलाखों के पीछे भेजने का क्रम शुरू हो गया।प्रेस सेंसरशिप लगाकर पत्रकारिता की हत्या की जाने लगी।कोई प्रतिरोध में बोलता और लिखता तो उसके हिस्से जेल की सज़ा का फरमान जारी हो जाता। जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई, जॉर्ज फर्नांडीस, जयपुर की महारानी गायत्री देवी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया समेत समूचे विपक्षी नेताओं को क्रमशः गिरफ्तार कर जेल भेजा जाने लगा। 30 जून 1975 को सरसंघचालक बाला साहेब देवरस को नागपुर स्टेशन में गिरफ्तार कर पुणे की यरवदा जेल में कैद कर दिया गया। घबराई और बौखलाई प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सरकार युद्ध स्तर पर संघ के स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी में जुट गई। इस प्रकार इंदिरा सरकार के विरोध में उठी हर आवाज़ को ख़ामोश करने के लिए जेलों में ठूंसा जाने लगा। नृशंस यातनाओं की बर्बरता कुछ इस क़दर थी कि- आपातकाल के भुक्तभोगी रहे लोगों के अनुभव सुन और पढ़कर आत्मा कांप जाए ।
कांग्रेस के उस स्वर्णिम तानाशाही हिटलरशाही दौर में लोकतन्त्र कैसा था ? उसे वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने ‘इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी ‘ में दर्ज किया है— “प्रेस को कुचल दिया गया था। साप्ताहिक ‘पाञ्चजन्य’, दैनिक ‘तरुण भारत’, और हिंदी मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’, जो जन संघ समूह के हिंदी प्रकाशन का हिस्सा थे ; को बंद कर दिया गया। बिना किसी सर्च वारंट या किसी सक्षम अधिकारी के आदेश के एक पुलिस पार्टी इन अखबारों के परिसर में दाखिल हुई, प्रेस के कर्मचारियों को धक्के मारकर बाहर निकाला और सारी पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद करने के लिए प्रेस पर ताला लगा दिया। इन अखबारों के प्रकाशक, राष्ट्रधर्म प्रकाशन को लखनऊ में वकील मिलना मुश्किल हो गया। वकील डरे हुए थे। जो तैयार होता, उसे भारत के रक्षा नियम के तहत गिरफ्तार कर लिया जाता था।”
( इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी पृ.57 प्रभात प्रकाशन संस्करण 2020 )
हालांकि ये आपातकाल से थोड़ा विषयांतर करने वाला विषय हो सकता है।लेकिन ये तथ्य और बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अक्सर कांग्रेस के नेता ‘लोकतंत्र और संविधान’ की दुहाई देते रहते हैं। महात्मा गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर देश और समाज में वैमनस्य फैलाते रहते हैं। मीडिया और पत्रकारिता को लांछित करते रहते हैं। वो भी इसीलिए क्योंकि मीडिया ‘नेहरु-गांधी खानदान’ के मुताबिक़ नहीं चलता है। उनकी अर्दली नहीं बजाता है। हालांकि इस मामले में नेहरू गांधी खानदान के पालित और पोषित पत्रकारों/ यूट्यूबर्स को खुली छूट है।बकायदे उनके लिए नेहरू गांधी एंड कंपनी की ओर से फंडिंग की व्यवस्था है।कांग्रेस शासित राज्यों में उनके लिए ऐशो-आराम और सरकारी पदों की बुलेट प्रूफ जैकेट तैयार है। लेकिन बाबा साहेब अंबेडकर और संविधान के साथ कांग्रेस ने कैसा व्यवहार किया था? इसके लिए हमें इतिहास की तारीखों के फ्लैशबैक में जाना पड़ेगा।अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 के मध्य देश का पहला निर्वाचन हुआ।
इस पहले आम निर्वाचन में बाबा साहेब अंबेडकर के खिलाफ उत्तरी मुंबई सीट से कांग्रेस ने नारायण काजरोलकर को चुनाव में उतारा। बाबा साहेब अंबेडकर को सुनियोजित ढंग से चुनाव हरवाया गया। क्योंकि पंडित नेहरू नहीं चाहते थे कि बाबा साहेब अंबेडकर जीतकर लोकसभा में आएं। हालांकि वो बंबई प्रांत से राज्यसभा के सदस्य जरूर बने। लेकिन बाबा साहेब अंबेडकर लोकसभा जाना चाहते थे। वो अपने अधूरे कार्यों को सदन के माध्यम से पूरा करना चाहते थे। इसीलिए 2 साल बाद यानी 1954 में एक बार फिर बाबा साहेब अंबेडकर महाराष्ट्र की ‘भंडारा’ सीट से उपचुनाव में उतरे। लेकिन यहां भी कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतारा और बाबा साहेब अंबेडकर को हार का सामना करना पड़ा।साल 1956 में बाबा साहेब अंबेडकर की मृत्यु हो गई।यानी उनके जीते जी कांग्रेस ने उनका इस तरह सम्मान किया था कि- उन्हें किसी भी सूरत में चुनाव जीतने नहीं दिया। उन्हें इसलिए सदन में चुनकर नहीं जाने दिया गया ताकि उनकी प्रखर आवाज़ संसद में न गूंज सके। अन्यथा इसके सिवाय भला और क्या कारण हो सकता था? आख़िर बार-बार बाबा साहेब अंबेडकर के ख़िलाफ़ कांग्रेस का उम्मीदवार उतारने की पंडित नेहरू की क्या मजबूरी रही होगी? साफ है कि वो डॉक्टर अंबेडकर को पसंद नहीं करते थे और बाबा साहेब अंबेडकर उनके हिसाब से कभी नहीं चल सकते थे। जोकि पंडित नेहरू को मंजूर नहीं था। इसीलिए बाबा साहेब अंबेडकर के साथ इस ढंग का व्यवहार किया गया।
ऐसे में जब कांग्रेस के नेता संविधान, बाबा साहेब अंबेडकर और महात्मा गांधी का नाम लेते हैं। उनके नाम पर सियासी रोटियां सेंकने का प्रयास करते हैं तो लगता है कि- वे अपने गिरेबां में झांकना पसंद नहीं करते हैं। शायद उन्हें इस बात की याद नहीं आती होगी कि-उन्होंने संविधान और बाबा साहेब अंबेडकर के साथ क्या सुलूक किया है। ऐसे में कांग्रेस और उसके नेताओं के मुंह से संविधान और लोकतंत्र पर ज्ञान देना। कुछ ऐसा ही है जैसे ‘ नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज’ को चली।
इसी प्रकार पंडित जवाहरलाल नेहरू ने महात्मा गांधी की किस ढंग से उनके जीते जी अवमानना की। ये समस्त तथ्य महात्मा गांधी के विविध पत्र व्यवहारों, उनके लेखन में उल्लेखित ही है।वहीं उनकी बेटी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान महात्मा गांधी के आदर्शों, विचारों और उनके संस्थानों का क्या हश्र किया। उसे भी जानना नितांत आवश्यक है। किस्सा ये था कि-लोकतंत्र की हत्या में इंदिरा गांधी और कांग्रेस इस क़दर अंधीं हो गईं थी कि उन्होंने ‘महात्मा गांधी’ के नवजीवन ट्रस्ट को भी नहीं बख्शा था.। दरअसल उस वक्त बाॅम्बे हाईकोर्ट के पूर्व जज वी.एम. तारकुंडे ने ‘सिटिजन्स फॉर डेमोक्रेसी ‘ मंच का गठन किया। इसमें उन्होंने मौलिक अधिकारों को वापस करने को लेकर मांगे रखीं। आगे चलकर 12 अक्टूबर को ‘सिटिजन्स फॉर डेमोक्रेसी ‘ का अहमदाबाद में एक सम्मेलन हुआ। इसमें बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेसी शाह, वी.एम. तारकुंडे, मिनोओ मसानी सहित अन्य वकीलों ने अपने विचार रखे। इस सम्मेलन के उद्घाटन के दौरान जस्टिस छागला के भाषण को आधार बनाकर बड़ौदा के साप्ताहिक पत्र ‘भूमि पुत्र’ के प्रेस को सील कर दिया था। भूमिपुत्र के मामले को लेकर नवजीवन ट्रस्ट ने एक बुकलेट छापी जिसके चलते पुलिस ने प्रेस पर धावा बोला और सील कर दिया था। उस दौरान जस्टिस छागला ने जो कुछ कहा था वह कुलदीप नैयर ने ‘इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी ‘ में लिखा — “आज जेल में बंद ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि वे वहाँ क्यों हैं और वे अपने बचाव नहीं कर सकते क्योंकि जहाँ कोई आरोप नहीं, वहाँ बचाव भी नहीं हो सकता है। वे किसी और अधिकरण के पास भी नहीं जा सकते, क्योंकि सब बंद पड़े हैं।”
( इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी पृ.107 प्रभात प्रकाशन संस्करण 2020 )
लेकिन इंदिरा गांधी अपनी तानाशाही के वीभत्स दौर की पराकाष्ठा पार कर रही थीं। उन्होंने महात्मा गांधी की विरासत का कैसे सम्मान किया था। उसे भी वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने दर्ज किया है —
“ नवजीवन ट्रस्ट प्रेस, जहाँ से महात्मा गांधी अपने ‘यंग इंडिया’ और ‘हरिजन’ का प्रकाशन कराते थे और अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ रहे थे, ने धरती पुत्र के मामले पर एक बुकलेट छापी। पुलिस ने प्रेस पर धावा बोल दिया, उसे सील कर दिया और छह दिनों तक बंद रखा। प्रेस ने गुजरात हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कुछ समय बाद उसे यह कहा गया कि अगर नवजीवन अपनी सारी प्रकाशित होनेवाली सामग्री सेंसरशिप के लिए सौंप दे, तो सरकार उसके खिलाफ काररवाई नहीं करेगी। जीतेंद्र देसाई, जो प्रेस के मैनेजर थे, ने कहा कि आजाद भारत की सरकार ने उस संस्थान को सील कर दिया, जिसे महात्मा ने देश को आजादी दिलाने के लिए खड़ा किया था।”
( इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी पृ.107 प्रभात प्रकाशन संस्करण 2020 )
सोचिए…जिस कांग्रेस ने महात्मा गांधी की विरासत का ये हश्र किया रहा हो । उस कांग्रेस ने और सबके साथ क्या कुछ नहीं किया होगा? क्या गैंग्स ऑफ ‘नेहरू गांधी खानदान’ को आजाद भारत की ये क्रूर-वीभत्स-दमनात्मक त्रासदी याद नहीं आती होगी? वस्तुत: इंदिरा गांधी उसी रास्ते पर चल रहीं थी जिस रास्ते पर हिटलर था। इसे ‘आपातकाल के आतंक’ की वीभत्स दास्ताने ख़ुद सिद्ध करती हैं। संविधान और न्यायपालिका को लेकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी क्या भाव रखती थीं? उस समय उनकी क्या मनोदशा थी? इस संबंध में
29 जुलाई, 1976 को उनका भारतीय कांग्रेस कमेटी के समक्ष दिया गया वक्तव्य उल्लेखनीय है — “यह संविधान नहीं है जो हमारे प्रगतिशील कदमों की बेड़ियाँ बन रहा है। यह तो न्यायपालिका है जो संविधान के प्रावधानों की व्याख्या कर बाधायें खड़ी कर रही है और हमे इसे परिवर्तित करना है।” कुछ महीनो बाद उन्होंने फिर अपना यही मत दुहराते हुए कहा, “संविधान की कई बार विकृत व्याख्या की जाती है। अतः संविधान की ही व्याख्या को असंदिग्ध बनाना आवश्यक है।”
(मोहनलाल रुस्तगी, आपातकालीन संघर्ष गाथा (संक्षिप्त जानकारी), पृष्ठ 18
एक ओर आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी अत्याचारों की पराकाष्ठा को पार कर रही थीं।जनजीवन बदहाल था। जबरदस्ती नसबंदी कराई जा रही थी। विपक्षी दलों और उनके नेताओं के साथ साथ विरोध में उठने वाली आवाज़ों को खामोश किया जा रहा था। वहीं दूसरी ओर आपातकाल के संकट को ख़त्म करने के लिए जनांदोलन तीव्रता पकड़ रहा था। आपातकाल के विरुद्ध लोक संघर्ष समिति की स्थापना हुई। नानाजी देशमुख समेत संघ के कई वरिष्ठ पदाधिकारियों और स्वयंसेवकों ने मोर्चा संभाला। राष्ट्रव्यापी ढंग से आपातकाल का प्रतिरोध शुरू हुआ। संघ के स्वयंसेवक अपने-अपने प्राण हथेली में रखकर लोकतन्त्र की रक्षा में जुट गए।इस आपातकाल विरोधी संघर्ष में 1 लाख से भी ज्यादा स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया और उन्हें जेल की यातना के क्रूर दौर से गुजरना पड़ा। ‘मीसा’ के अंतर्गत जो 30 हज़ार लोग बंदी बनाए गए थे। उनमें से 25 हज़ार से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे। इतना ही नहीं लोकतंत्र की रक्षा करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 कार्यकर्ता अधिकांशतः जेल के अंदर और बाहर बलिदान हो गए।उनमें संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख श्री पांडुरंग क्षीरसागर भी थे। लेकिन संघ के स्वयंसेवकों ने इंदिरा गांधी सरकार के समक्ष घुटने नहीं टेके। संविधान के आदर्शों के साथ आपातकाल की त्रासदी को समाप्त करने में जुटे रहे।
( संदर्भ : हो. वे. शेषाद्रि कृतिरुप संघ दर्शन, पृ.492)
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गांधीवादी, समाजवादी नेता अच्युत पटवर्धन ने आरएसएस की आपातकाल के दौरान भूमिका पर इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र में लिखा— “मुझे यह जानकार प्रसन्नता हुई कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता राजनीतिक प्रतिरोध करनेवाले किसी भी अन्य समूह के साथ मिलकर, उत्साह और निष्ठा के साथ कार्य करने के लिए, तथा घोर दमन और झूठ का सहारा लेने वाले पैशाचिक शासन का जो कोई भी विरोध कर रहे हों, उनके साथ खुल कर सहयोग करने और साथ देने के लिए तैयार थे। जिस साहस और वीरता के साथ पुलिस के अत्याचारों और उसकी नृशंसता को झेलते हुए स्वयंसेवक आंदोलन चला रहे थे,उसे देखकर तो मार्क्सवादी संसद सदस्य – श्री ए के गोपालन भी भावकुल हो उठे थे। उन्होंने कहा था “कोई न कोई उच्चादर्श अवश्य है जो उन्हे ऐसे वीरोचित कार्य के लिए और त्याग के लिए अदम्य साहस प्रदान कर रहा है”।
(संदर्भ: इंडियन एक्सप्रेस 9 जून, 1979)
वहीं पूर्व जज एम.सी. सुब्रमण्यम ने लिखा— “जिन वर्गों ने निर्भीक लगन के साथ यह कार्य किया, उनमे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विशेषतः उल्लेखनीय है। उन्होने सत्याग्रह का आयोजन किया। अखिल भारतीय संचार तंत्र को बनाए रखा। आंदोलन के लिए चुपचाप धन एकत्र किया। बिना किसी विघ्न बाधा के साहित्य वितरण की व्यवस्था की। कारागार में अन्य दलों और मतों के संगी बंदियों को सहायता प्रदान की। इस प्रकार उन्होने सिद्ध कर दिया कि स्वामी विवेकानंद ने देश में सामाजिक और राजनीतिक कार्य के लिए जिस सन्यासी सेना का आवाहन किया था, उसके वो सबसे निकटतम पात्र हैं। वह एक परंपरावादी क्रांतिकारी शक्ति है।”
(संदर्भ: इंडियन रिवियू – मद्रास, अप्रैल 1977)
जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन आपातकाल के विरोध में सशक्त संघर्ष कर रहे थे। असंख्य कार्यकर्ता अपने जान की बाजी लगाकर सत्याग्रह, जन-जागरण में जुटे थे। उस समय कम्युनिस्टों ने एक बार फिर वैसा ही काम किया जैसे उन्होंने पाकिस्तान को बनाने के लिए किया था। राष्ट्र विरोधी कम्युनिस्टों ने अपना मूल चरित्र बारंबार दुहराया। चाहे 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान चीन की रहनुमाई की हो। याकि आपातकाल की हो। कम्युनिस्ट हमेशा उस रास्ते में खड़े रहे जो भारत की मूल सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रीय चेतना के विरुद्ध रहा। जब आपातकाल में लोकतंत्र की हत्या की जा रही थी। उस समय कम्युनिस्ट आपातकाल में ‘कम्युनिस्ट क्रांति’ का सपना देख रहे थे। इस संदर्भ में ये तथ्य कम्युनिस्टों की लोकतंत्र भारत विरोधी सोच का पर्दाफाश करते हैं — “सीपीआई ने आपातकाल को एक अवसर के रूप में देखा और स्वागत किया। सीपीआई नेताओं का मानना था कि वे आपातकाल को कम्युनिस्ट क्रांति में बदल सकते थे। सीपीआई ने 11वीं भटिंडा कांग्रेस में इन्दिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल का समर्थन किया था।”
(Coalition Strategies and the Tactics of Indian Communism, P. 224)
अभिप्रायत: आपातकाल भारत के लोकतन्त्र पर एक ऐसा गहरा घाव है।जो कभी नहीं भर सकता है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने केवल आपातकाल ही नहीं लगाया था। बल्कि उन्होंने ये सिद्ध करने का प्रयास किया था कि- ये देश नेहरू-गांधी खानदान की बपौती है। ऐसे में नेहरू-गांधी खानदान देश के संविधान और कानून से ऊपर आते हैं। इसीलिए उनके लिए न्यायालय के आदेश, लोकतान्त्रिक आवाजें कोई महत्व नहीं रखती हैं। यदि कुछ महत्व रखता है तो वो ‘सत्ता’ है। सत्ता के लिए नेहरू-गांधी एंड कंपनी किसी भी सीमा तक जा सकती है। चाहे संविधान को बंधक बनाने की बात हो। अथवा देश में वैमनस्य, भेदभाव और विभाजन की दीवार खड़ी कर राष्ट्र की एकता को खंडित करना हो।नेहरु-गांधी खानदान के वारिसों को जब भी अवसर मिला है। उन्होंने भारत के महान लोकतन्त्र, संविधान, महापुरुषों और आदर्शों पर आघात करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उपरोक्त उद्धृत और वर्णित तथ्य इन समस्त बातों की गवाही देते हैं।साथ ही आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष करने वाली सज्जन शक्तियों ने ये सिद्ध कर दिया है कि—कोई भी राष्ट्र से बड़ा नहीं हो सकता है। चाहे संकट कितना भी विकट , क्रूर और भयावह हो जब समूचा राष्ट्र एकजुट होता है। संगठित तौर पर अपनी वाणी और कार्यों को धार देता है तो बड़े से बड़े पर्वत शिखर भी झुक जाते हैं।आपातकाल के विरोध में हुआ संघर्ष इसी अदम्य जिजीविषा और बलिदान का प्रतीक है। वो संघर्ष संविधान विरोधी और संविधान रक्षकों के बीच का संघर्ष था। एक ओर लोकतंत्र और संविधान की हत्या करने वाली सरकार थी तो दूसरी ओर भारत माता की संतानें; जिन्होंने विपरीत से विपरीत हालातों में धैर्य को नहीं खोया। निर्मम यातनाओं, अत्याचारों की असह्य वेदनाओं के बावजूद भी लोकतंत्र की पताका थामे रहे। मुखरता के साथ प्रतिकार किया और भारत माता की जयकार को पुनश्च साकार किया ।लोकतान्त्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की। इसीलिए आपातकाल का स्मरण करना अनिवार्य हो जाता है ताकि नई पीढ़ी संघर्षों को जान सके। साथ ही ये भी जान सके कि-हमारे महान पुरखों ने किन विपरीत परिस्थितियों में साहस और शौर्य का परिचय दिया।अपना सर्वस्व आहुत कर देश के संविधान की रक्षा की।
~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
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