भोपाल: MP Politics धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद सब बेमानी संघ और बीजेपी ने एक स्वर में जबकि ये बात कह दी है, तो क्या ये एक बड़े बदलाव का संकेत है। क्या भारत का संविधान पुनर्परिभाषित होने जा रहा है? एक राष्ट्र के रूप में क्या भारत की लोकशाही नए मूल्यों को ग्रहण करने जा रही है। अगर ये एक कुछ नेताओं की निजी राय है तो तब तो बात खत्म हो जाती है। पर ये यदि इशारा है एक बड़े बदलाव के होने से पहले का तो इस पर बहस बनती है, क्योंकि इसका वास्ता आप से है, हम से है, पूरा देश से है।
MP Politics भारत का संविधान लागू हुए 75 साल से भी ज्यादा का वक्त गुजर चुका है लेकिन इसकी प्रस्तावना में शामिल बातों पर बहस खत्म नहीं हुई है। इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के मौके पर ये बहस फिर गरमा गई है। RSS के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने प्रस्तावना में शामिल धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द को हटाने के लिए बहस की वकालत की। होसबाले का तर्क है कि इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना में तब शामिल किया गया जब देश में इमरजेंसी लागू थी और इन्हें संसद की सहमति के बिना जोड़ दिया गया था
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने भी RSS पर निशाना साधते हुए X पर लिखा RSS का नक़ाब फिर से उतर गया। संविधान इन्हें चुभता है क्योंकि वो समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय की बात करता है। RSS-BJP को संविधान नहीं, मनुस्मृति चाहिए। ये बहुजनों और ग़रीबों से उनके अधिकार छीनकर उन्हें दोबारा ग़ुलाम बनाना चाहते हैं। संविधान जैसा ताक़तवर हथियार उनसे छीनना इनका असली एजेंडा है।
दत्तात्रेय होसबाले की इस मांग पर कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने आरोप लगाया कि RSS ने कभी भारत के संविधान और इसके बुनियादी सिद्धांतों को स्वीकार नही किया क्योंकि ये मनुस्मृति पर आधारित नही है। कांग्रेस RSS की मांग पर मुखर हुई तो केंद्रीय शिवराज सिंह ने पलटवार किया। शिवराज ने साफ कहा कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाज हमारी संंस्कृति का मूल नहीं है इसे हटाए जाने पर विचार जरूर होना चाहिए।
बीजेपी इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने पर संविधान हत्या दिवस मना रही है तो कांग्रेस संविधान बचाओं अभियान चला रही है। यानी संविधान पर आर-पार की जंग जारी है। लेकिन बड़ा सवाल ये कि संविधान में क्या वाकई समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। क्या ये शब्द गैर जरुरी है और अगर इन शब्दों के प्रस्तावना से हटाया जाता है तो क्या संविधान की मूल प्रकृति नहीं बदल जाएगी और क्या इन शब्दों की जगह कुछ नए शब्दों को शामिल किया जाएगा।
क्या “धर्मनिरपेक्षता” शब्द भारत के संविधान का मूल हिस्सा है?
नहीं, यह मूल संविधान का हिस्सा नहीं था। इसे 1976 में 42वें संशोधन के जरिए जोड़ा गया था, लेकिन इसका मूल विचार संविधान की आत्मा में पहले से मौजूद था।
“समाजवाद” शब्द संविधान से हटेगा तो क्या असर पड़ेगा?
यदि यह शब्द हटता है, तो यह सामाजिक न्याय की अवधारणा को कमजोर कर सकता है और यह भारत की कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में बदलाव का संकेत होगा।
क्या संविधान की प्रस्तावना से “धर्मनिरपेक्षता” हटाने के लिए जनमत संग्रह की जरूरत है?
नहीं, इसके लिए संसद द्वारा संविधान संशोधन विधेयक पारित करना होता है, जनमत संग्रह की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन यह संवैधानिक मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन से जुड़ा गंभीर मसला है।