माँ बागेश्वरी देवी के दर पर जहाँ भक्त दौड़ते-कूदते जाते हैं, वह जगह मौजूदा समय मे जिस राज्य में स्थित है, उसे रामायण काल में दंडकारण्य के नाम से जाना जाता था। आज के युग मे ये जगह ‘‘धान की कोठी‘‘ या ‘‘धान का कटोरा‘‘ नाम से भी प्रसिद्ध है। भारत के हृदय स्थल मध्यप्रदेश के दक्षिणपूर्व भाग में ये जगह स्थित है और छत्तीसगढ़ राज्य के नाम से प्रसिद्ध है।
इसी छत्तीसगढ़ राज्य के उत्तरांचल में आदिवासी बहुल संभाग सरगुजा है। जिसके मुख्यालय अम्बिकापुर से करीब 80 KM. की दूरी पर सूरजपुर जिला स्थित है, जहाँ ओड़गी तहसील में वन देवी मां कुदरगढ़ी धाम है। यह धाम कुदरगढ़ पहाड़ पर स्थित माँ बागेश्वरी देवी है। इन्हें माँ कुदरगढ़ी देवी के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि यहाँ भक्त माँ का दर्शन करने दौड़ते-कूदते आते हैं।
इसलिए, भक्त दर्शन करने जाते हैं दौड़ते-कूदते
कुदरगढ़ पहाड़ की चोटी पर सघन वन से करीब 1500 फीट की ऊंचाई पर शक्तिपीठ मां बागेश्वरी बाल रूप में कुदरगढ़ी देवी के नाम से विराजमान हैं। सरगुजिहा बोली दौड़ना को कुना कहा जाता है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि जो व्यक्ति इस पहाड़ पर कूदते- कूदते चढ़ता है, वही चढ़ पाता है और मां कुदरगढ़ी का दर्शन पाता है।
सरगुजा संभाग के बारे में, जानिए
सरगुजा संभाग की प्राकृतिक सौंदर्यता, हरियाली, ऐतिहासिक व पुरातात्विक स्थल, लोकजीवन की झांकी, सांस्कृतिक परंपराएं, रीति-रिवाज, पर्वत, पठार, नदियाँ कलात्मक आकर्षण बरबस ही मन को मोह लेते हैं। 1 जनवरी 2012 को सरगुजा जिले का विभाजन कर दो नये जिले बलरामपुर-रामानुजगंज और सूरजपुर बनाये गये थे।
स्थिति और विस्तार
छत्तीसगढ़ राज्य के वनमण्डल सूरजपुर अन्तर्गत ओड़गी ब्लाक मुख्यालय से लगभग छः किलो मीटर की दूरी पर उत्तर पश्चिम मे वन परिक्षेत्र कुदरगढ़ का कुदरगढ़ पर्वत स्थिति हैं। कुदरगढ़ देवी धाम ओडगी ब्लाक के ग्राम पंचायत कुदरगढ़ में आता हैं। इस पहाड़ पर जगत जननी मां कुदरगढ़ी देवी का निवास होने के कारण इसका नाम कुदरगढ़ पड़ा। कुदरगढ़ को पहले कुरियागढ़ के नाम से जाना जाता था। यह वन खंड धने जंगलों, लताओं एवं जल सोतों से भरा है। इस पहाड़ पर मनुष्य का निवास स्थान नही है। यहां अहिंसक वनचर पशु-पक्षी पाये जाते हैं। कुदरगढ पर्वत का पठार पांच किलोमीटर लम्बा और तीन किलोमीटर चौड़ा है। वनों में सरई, धवरा, तेंदू, महुआ आदि पेड़ों के साथ मोहलाईन व अन्य प्रकार की लताएँ पाई जाती हैं।
कुदरगढ़ का प्राकृतिक सौंदर्य
कुदरगढ़ का प्राकृतिक सौंदर्य मन को मोह लेने वाला रहता है। दरअसल, वन देवी का निवास स्थल कुदरगढ़ अत्यंत मनोहारी है। यहां कल-कल करते झरने की आवाज, नाचते मोरों और बंदरों की टोली बरबस मन को मोहित करने वाली है। पहले इस घनाघेर जंगल में शेर की दहाड़ भी सुनाई देती थी। वर्तमान में भी यदा-कदा शेर भ्रमण के निशान दिखाई पड़ते हैं। कुदरगढ़ पहाड़ी पर लंबे-लंबे साल वृक्ष, गगनचुंबी पहाड़ी चोटियां केतकी पुष्पों से युक्त नाले, केले का बगीचे लगे हुए है। कुदरगढ़ की पहाड़ी पर प्राचीन गुफा, भित्ति चित्र और शैल चित्र इसके इतिहास को प्रमाणित करते हैं। कुदरगढ़ धाम में आने वाला हर व्यक्ति प्राकृतिक सौंदर्य और मां की आराधना से भाव विभोर हो उठता है।
इस मंदिर का इतिहास
कहा जाता है कि इस मंदिर का इतिहास अस्पष्ट है, लेकिन डाल्टन के अनुसार, मंदिर का निर्माण राजा सूर्यवंशी बालंद राजपूत राजाओं द्वारा किया गया था। बालंदशाह 17 वीं शताब्दी में कोरिया राज्य के मूल शासक थे।
इच्छाओं की पूर्ति के लिए, बलि देने की भी मान्यता
मान्यताओ अनुसार, मां बगेश्वरी देवी के मंदिर में भक्त अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए देवी को प्रसन्न करने के लिए इस मंदिर की परिक्रमा करते हैं। उनकी इच्छा पूरी होने पर, देवी को एक बकरी के खून के साथ चढ़ाया जाता है जिसे 6 इंच व्यास के एक छोटे से छेद (कुंड) में डाला जाता है। ऐसा कहा जाता है कि अगर हजारों बकरी का खून इसमें बहा दिया जाता है, तो भी कुंड नहीं भर पाएगा, जिसमें देवी के सम्मान में रक्त बकरी को दिया जाता है, एक तथ्य यह है कि यह कभी नहीं भरता है। (नोट- ये जानकारियां wikipedia और माँ कुदरगढ़ी देवी की वेबसाइट से प्राप्त जानकारी के अनुसार है।)
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